क्या अब भारत में लोकतंत्र खत्म होने के कगार पर है या खत्म किया जा रहा है?
@Tikam Shakya, Editor in Chief, The Voice Of Justice
क्या अब राजनीतिक पार्टियों को खासकर विपक्ष को चुनाव लड़ने की जरूरत है? क्या अब भी लोकतंत्र जिंदा है जबकि चुनाव के समय आयोग की गिरफ्त से ईवीएम मशीन होती है ओर उसे ही कोई चोरी कर ले जाता है, वह भी सत्ता के बल पर? आगे भविष्य में यदि लोकतंत्र को जिंदा रखना है तो हमें क्या करना चाहिए? लोकतंत्र को भारत में कैसे मजबूत किया जाए? क्या लोकतंत्र से हम यह समझते हैं कि एक बार चुनाव हो गया और हमने वोट दे दिया यही लोकतंत्र है? और भारत में संवैधानिक संस्थाएं हैं उनसे डेमोक्रेसी या लोकतंत्र कायम नहीं होता? क्या सिर्फ चुनाव होने से ही लोकतंत्र को हम समझने लगे हैं।
ओर भी ऐसे कई सवाल आपके मन में उठते होंगे। उनके जवाब ढूंढने के लिए मेरे मन में भी इस पर लिखने की बात उठी ओर मेरे या देश के नागरिक होने के नाते मैं आपको यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि अब इस लोकतंत्र का मतलब क्या है?
बड़े राजनीतिक दल जो कि सत्ता में हैं ओर जो विपक्ष में हैं वह खासकर अपनी बात को बलपूर्वक चुनाव आयोग के समक्ष नहीं उठाते हैं। कि हम ईवीएम से चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं, या करने जा रहे हैं। आखिर क्यों खासकर कांग्रेस इन चुनावों का जो कि ईवीएम मशीन से होने जा रहा है या हो रहा है और चरणबद्ध तरीके से पूरे 5 साल चलता है।
चाहे विधानसभा का चुनाव हो चाहे लोकल लेवल के चुनाव हो, चाहे लोकसभा का चुनाव हों।यह पूरे 5 साल चलता है क्या हमें सिर्फ ईवीएम मशीन के सहारे ही चुनाव कराने होंगे? अब हम क्यों नहीं समझ रहे कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर अब सवाल जनता खड़े कर रही है, हर चुनाव में यह देखा जाता है कि कहीं न कहीं ईवीएम मशीन के साथ छेड़छाड़ और ईवीएम मशीन का खराब होना, ईवीएम मशीन का किसी प्रत्याशी की गाड़ी में मिलना या प्रत्याशी के समर्थक की गाड़ियों में मिलना इस बात का द्योतक नहीं है कि चुनाव आयोग की साख जो अब तक चुनाव आयोग के पहले के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे उन्होंने बनाई थी, उसको अभी का चुनाव आयोग किस तरह इस साग को खत्म करने जा रहा है। इस दौर में हम यह भी देखते हैं कि सीआरपीएफ जोकि केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल होता है वह भारत के गृहमंत्री के अंतर्गत आता है। वह सीआरपीएफ ग्रह मंत्री के निर्देश के अनुसार कार्य करता है। और अपनी रिपोर्ट गृह मंत्री को देता है। क्या वाकई में चुनाव आयोग अब जिसको हम एक संवैधानिक संस्था कहते हैं वह किसी एक के व्यक्तित्व के या राजनीतिक दबाव मैं आकर चुनाव नहीं करवाता है?
इन बातों से तो यही साबित होता है
कि अब देश का लोकतंत्र जिसे हम चुनाव की नजर से देखते हैं और देश में कई ऐसे संवैधानिक संस्थाएं हैं जिनको भी वर्तमान सत्ता पक्ष जो सरकार में रहता है वह प्रभावित करता है। जैसे कि चुनाव आयोग, न्यायपालिका और अपना प्रशासनिक ढांचा।
भारत के संविधान के अंतर्गत पंचायत चुनाव से लेकर देश की बड़ी पंचायत के चुनाव भी संविधान के तहत ही होते हैं और उसी संविधान में भारत के हर एक नागरिक के अधिकार सुरक्षित रहते हैं जैसा कि भारत के संविधान में लिखा हुआ है इनको भारत सरकार ही अब खत्म करने पर आमादा है। हमने यह भी देखा है कि वर्तमान चुनाव में मुद्दा शुरू में विकास का होता है सरकार के कामकाज का होता है विपक्ष उसको अपने सरकारी कामकाज पर घेरता है। उस पर सवाल उठाता है और इन मुद्दों को लेकर जनता के बीच में अपना वोट मांगने जाता है।
इस दौर में सरकार अपने किए गए कामों को जनता के सामने रखकर वोट मांगती है। लेकिन जो शुरू में मुद्दा विकास का रहता है वह अंत में जाते जाते हैं धर्म विशेष का बन जाता है। यह दौर भी हम देख रहे हैं। क्या आप हम सिर्फ धर्म के नाम पर वोट देते हैं या देने लगे हैं विकास इसमें कोई मायने नहीं रखता है । यह कैसा समय आ गया है जब देश की जनता एक संवैधानिक पद के लिए जिस पद पर बैठ कर व्यक्ति जनता के हित में कानून बनाता है उस पद पर हम एक धर्म विशेष पर वोट मांग कर उसे हम जिताने लगे तो वह व्यक्ति संवैधानिक पद पर बैठकर क्या आप के अधिकारों की रक्षा कर पाएगा? जो कि भारत के संविधान में नीहित है। जिसको हम उसे 5 साल के लिए देते हैं कि जो मेरे अधिकार भारत के संविधान के तहत हैं वह मैं आपको वोट के जरिए उस व्यक्ति को सोंप रहा हूं और आप मेरे इस संवैधानिक अधिकार का रक्षा करोगे। लेकिन जो व्यक्ति संवैधानिक पद पर बैठता है वह संवैधानिक अधिकारों को ही खत्म करने लगता है जिसके लिए उसे चुना गया है।
क्या अब विपक्ष या विपक्षी राजनीतिक दलों को या क्षेत्रीय दलों को चुनाव का बहिष्कार नहीं करने देना चाहिए या इनको चुनाव लड़ना ही नहीं चाहिए। क्योंकि जब संवैधानिक संस्थाएं देश की सरकार के कब्जे में हों। खुद चुनाव आयोग जो एक संवैधानिक संस्था है उसके अधिकारी ही चुनाव आयोग की साख पर बट्टा लगाने का काम करने लगें। ओर साथ में सरकार करने लगे तब जनता क्या करे ।
इसमें सबसे बड़ी मुख्य भूमिका भारत के लोकतंत्र को खत्म करने की ईवीएम मशीन पर आ जाती है जिससे चुनाव होते हैं जब चुनाव ईवीएम से ही जीते जा रहे हैं तो फिर अन्य राजनीतिक दलों को चुनाव में भाग लेना क्या मायने रखता है? अब हमें यह जान लेना चाहिए या राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि अब आगे के चुनाव में भाग लेना है या नहीं इसका बहिष्कार करना है जब तक की बैलेट पेपर से चुनाव आयोग आगे आने वाले चुनाव नहीं करा लेता ।
इसमें मुख्य भूमिका मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की है जो अब तक बीते 10 वर्षों से ईवीएम पर चुप है क्योंकि कांग्रेस के समय से ही ईवीएम भारत में लाई गई थी और वह भी एक बार 2009 की लोकसभा का चुनाव ईवीएम की दम से ही जीती थी। ओर दोनों दलों के बीच यह समझौता दोनों मुख्य विपक्षी दल, पक्ष और विपक्ष के दल जिनको हम कांग्रेस और भाजपा कहते हैं समझौता हुआ कि दस साल आप राज करो और 10 साल हम राज करते हैं।
इस बीच में जो भी मुख्य विपक्षी क्षेत्रीय दल आएगा उसको हम खत्म करके चले जाएंगे और केंद्र में सिर्फ भाजपा और कांग्रेस ही रहेगी। विधानसभा के चुनाव बिहार, यूपी व पश्चिम बंगाल या पांच राज्यों के चुनाव हम देख रहे हैं कि जो क्षेत्रीय दल हैं जो राज्यों की कमान संभालते हैं या जिनकी सरकार राज्यों में है उसको दोनों ही राजनीतिक दल अब मिलकर खत्म कर रहे हैं। यह भारत की राजनीति के लिए बहुत ही दुखद पहलू है। जिसमें कि जनता अपनी पसंद के उम्मीदवार या पार्टी को वोट नहीं दे सकता।
सत्ता के द्वारा यह तय कर दिया जाए कि भारत की जनता को सिर्फ कांग्रेस या भाजपा को ही वोट देना है यह लोकतंत्र की पूरी तरह से हत्या है। इसमें शामिल भाजपा और कांग्रेस मुख्य भूमिका में है। हम इससे यह अंदाजा लगा सकते हैं कि खासकर कांग्रेस अब तक ईवीएम पर सवाल या ईवीएम का बहिष्कार करने का मुद्दा या प्रस्ताव विपक्ष के द्वारा देश की संसद में नहीं लाया गया? और ना ही चुनाव आयोग के समक्ष मजबूती के साथ अन्य क्षेत्रीय दलों या अन्य राजनीतिक दलों को साथ में लेकर कांग्रेस नहीं गई की अब चुनाव भारत के लोकतंत्र के लिए बैलट पेपर का है ना कि ईवीएम का और हम ईवीएम का बहिष्कार करते हैं।
यदि चुनाव आयोग ईवीएम पर चुनाव कराता है तो हम चुनावों का भी बहिष्कार करते हैं यह बात देश की मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने अब तक नहीं कहा है इससे सीधा सीधा अंदाजा लगता है की भारत के लोकतंत्र को खत्म करने के लिए कांग्रेस भी उतनी ही जिम्मेदार है जितनी कि अभी भारतीय जनता पार्टी।
चुनाव आयोग की दलील यह रहती है कि,"बेलट पेपर पर चुनाव खर्च ज्यादा होगा".
सोचिए कि भारत के लोकतंत्र जो संवैधानिक अधिकार है उसको बचाने की जब बात आती है या उसकी साख को बचाने की बात आती है या उसके अधिकारों अधिकारों की बात आती है तो हमारा चुनाव आयोग या कहता है कि चुनाव में बैलेट पेपर से ज्यादा खर्च आएगा जब हमारा देश का लोकतंत्र ही खतरे में है तब इस खर्च की बात चुनाव आयोग कर रहा है या सरकारी करती हैं. हमारे संवैधानिक अधिकार को बचाने के लिए हमारी सरकार के पास पैसा नहीं है और दूसरे कामों के लिए पैसा है तो यह बात कितनी अजीब लगती है कि भारत के नागरिक के अधिकार खत्म हो जाएं और उसको एक कर्ताधर्ता जो की सरकार होती है वह अपने मनमर्जी से चलाने लगे तो फिर भारत में संवैधानिक संस्थाएं जो अपना काम सही तरीके से नहीं कर पा रही हैं उसको कैसे बचाया जाए?
यदि आसाम जैसी स्थिति अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में होती ओर जो बाईडन की गाडी में बेलटपेपर की पैटीयां मिल जाती तो क्या होता? जब डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव आयोग पर सवाल उठाए थे। क्या हंगामा होता यह सोचने का विषय है।
लेकिन यहां पर भारत में एक पार्टी प्रत्याशी की गाड़ी में ईवीएम मशीन मिलती हैं तो चुनाव आयोग सिर्फ अपनी सफाई देता है कि हमारी गाड़ी खराब हो गई थी और जाम लग चुका था और जाम में हम फंस चुके थे इसी दौरान एक पीछे से गाड़ी आती है जिसको चुनाव आयोग के अधिकारी रूकवाते हैं और उसमें सवारी करने लगते हैं। कुछ दूरी पर जाकर वहां की जनता उन्हें घेर लेती है और फिर जो एस्कॉर्ट कर रहे अधिकारी होते हैं जिसमें बड़ी गाड़ियों का काफिला होता है उसको सूचना दी जाती है ।आती है और सुरक्षा बल भारी सुरक्षा बल वहां पर आता है और भीड़ को तितर-बितर करता है और पहले लाठीचार्ज कर फिर गोली चलाता है। इस बीच एक अधिकारी जो कि प्रथम अधिकारी है। पीठासीन अधिकारी है कहता है कि वह रात भर झाड़ियों के बीच में छुपा रहा, यह कितना हास्यास्पद है जब घटनास्थल पर भारी सुरक्षा बल मौजूद था। तब वो अधिकारी कहा था और पुलिस उसको रात भर तलाशती रही। कहानी कितनी जायकेदार है?
यानी कि सवाल चुनाव आयोग पर ज्यादा उठ रहे हैं ना कि उसकी सफाई पर जो अपने सवाल के जवाब में दिया है। भारत में जब यह हालात हो चुके हैं कि सत्ताधारी दल जो केंद्र में रहता है उसके अधीन चुनाव आयोग अपना काम कर रहा है और उसके इशारे पर चुनाव जो कि अभी आसाम और पांच राज्यों में हो रहे हैं इन चुनावों को भारत की केंद्र सरकार प्रभावित करती नजर आ रही है। ऐसे में हम स्वतंत्र चुनाव की उम्मीद इस परिपेक्ष में कैसे कर सकते हैं?
क्षेत्रीय दलों की भूमिका ?
भारत के लोकतंत्र को बचाने के लिए यदि अब मुख्य क्षेत्रीय दल कांग्रेस को छोड़कर जितने भी हैं उनको चुनाव आयोग के सामने अपना पक्ष रखना चाहिए कि अब हम आगे भारत में कहीं भी चुनाव हो विधानसभा का हो या लोकसभा का उसमें हम भागीदारी नहीं निभाएंगे हम उसका बहिष्कार करेंगे जिस दिन यह तीसरे दल इतने भी राजनीतिक दल हैं यह कहने लग जाएंगे तब हमारे भारत में लोकतंत्र को जिंदा रखा जा सकता है और जब बैलेट पेपर से चुनाव होंगे और इस बीच संवैधानिक पद पर बैठने वाला व्यक्ति बिना किसी शक व शुबहा के एमएलए एमपी बनेगा तो वह जनता के हित की बात करेगा और भारत के नागरिक के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर रहेगा।
अभी सिर्फ राजनीतिक पार्टी के हितों की रक्षा के लिए एमएलए व एमपी अपनी भाषा बोलता है वह एमपी व एमएलए बनने के बाद सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक पार्टी की गाइड लाइन पर ही चलता है ना कि भारत के संविधान के अंतर्गत भारत के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए। अभी वक्त है यदि तीसरे जितने भी राजनीतिक क्षेत्रीय दल हैं वह अब इस पहल को शुरू करें जहां भी हो चाहे संसद हो, चाहे सड़क, वहां पर ईवीएम के खिलाफ आंदोलन शुरू हो जाना चाहिए। तब तो हमारा भारत का संविधान और भारत के संविधान में प्रदत्त भारत के नागरिक के अधिकार सुरक्षित रह सकेंगे।