सदगुरु कबीर ने कहा है कि, "न हो मुल्ला न बन ब्रहमण, दुई का दूर कर झगड़ा।"
"मनुष्य केवल मनुष्य ही है।
बुद्ध ने भी हमें यही समझाया है कि "हम केवल इंसान हैं।"
इस शरीर के भीतर सत्य चेतना को देखने वाला मनुष्य हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई जैन बोद्ध समुदाय की दीवारें खड़ी नहीं करता है , सच्चा प्रेम करके ही मनुष्य सत्य चेतना के प्रवाह को अपनी काया के भीतर देख सकता है । कबीर साहब कहते हैं , ज़रूरत क्या है ? ब्रहमण ओर मुस्लिम होने की ईसाई सिक्ख जैन, हिन्दू मुस्लिम होने से विवाद उत्पन्न होता है तो तुम्हैं इंसान ही बनें रहना। तोड़ कर फेंक दें तस्वीरें, किताबें डाल पानी में ।
यह किताबें और तस्वीरें यदि मानव व मानव के बीच दीवार खड़ी करें तो ऐसी तस्वीरों की ओर किताबों की जरूरत ही नहीं है ।
किताबें डाल पानी में , मनुष्य के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव सद्गुरु कबीर साहब को बर्दाश्त नहीं था ।
अपनी काया के भीतर जो अनहद नाद की गूंज है उसे सुनो ,अपनी ही काया के भीतर सत्य चेतना का प्रवाह लगातार बह रहा है उसे देख लो , उसकी मस्ती में डूब जाओ और वो मस्ती केवल मनुष्य की काया के भीतर है । यह मनुष्य का शरीर एक तम्बुरा है । कबीर साहब कहते हैं, "तम्बुरा रे सुण ले साधों भाई , तेरी लख चौरासी मिट जाई ।तेरा आवागमन छूट जाई तम्बुरा रे सुण ले साधों भाई, मनुष्य को सदगुरु कबीर साहब ने तम्बुरा कहा है जो रूण झुण, रूण झुण बजता रहता है , कैसे बजता है यह सांस चलती है,सांस आती है और सांस जाती है इन सांसों के चलने में भी एक ध्वनि होती है उस ध्वनि को शांत बैठकर सुन ।
यह शरीर रूपी तम्बुरे को सुन लो , बार बार जन्म लेना और मरने की जो प्रक्रिया है उस आवागमन से मुक्त हो जाए ।
संघ की शरण क्या है ?
संघ की शरण का अर्थ है कि हम अपनें चित्त को शान्त करें ,जो मन बाहर भटकता है उसे अपनी काया के भीतर पुचकार कर शांति से बैठा दें । हम खुद पहले संघ बनें । विकारों से मुक्त हो जाए जागा हुआ इंसान ही खुद संघ होता है ओर जो अन्य लोग जाग गय हैं उन जागे हुए लोगों को संगठित होकर रहना चाहिए तब वो संगठित लोगों का समूह संघ कहलाता है ।काम क्रोध लोभ मोह इर्ष्या अहंकार आदि विकारों में बाहर भटकता हुआ मन बहिर्मुखी है ऐसा इंसान जो खुद संघ नहीं है वह कोई संगठन नहीं बना सकता है । संगठित होकर एक साथ चलने के लिए भी एक जैसे विचारों का होना आवश्यक है ।
इसलिए खुद संघ बनें सत्य की राह पर चलें ।
बुद्ध की तीसरी शरणं है संघं शरणं गच्छामि यानि कि मैं संघ की शरण में जाती हूं । मनुष्य अपने विकारों से मुक्त बनें तो सच्चा प्रेम उत्पन्न हो सकता है , ओर प्रेम आपस में जोड़ता है एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के साथ जोड़ता है ।तोड़ता नहीं है , मैं ब्रहमण ओर तु मुस्लिम यह छिलके मानव को तोड़ते हैं , इसलिए कबीर साहब हैं कि इन छिलकों में मत उलझो हम सब केवल इंसान ही हैं , खुदा के लिए यह शरीर ही पर्याप्त है उसकी इबादत करनी है तो सारी कायनात उसकी है , कहीं भी बैठ जाओ सारी पृथ्वी उसी की है ।
दीवारें खड़ी नहीं करता है । जितनी भी दीवारें मानवता के लिए बाधक हैं , उन दीवारों को गिरा देना है ।
इश्क का झाड़ू लेकर विकारों की गंदगी दूर करें , अपने दिल को साफ करें । बस यह साफ करनें की कला सीखी जाए अपनें चित्त से क्रोध को द्वेष और दुर्भावना को कैसे साफ करें कैसे विकारों को नष्ट किया जा सकता है , पोथियों को पढ़कर यह विकार धुलते नहीं है , कर्मकांड यज्ञ हवन से भी इश्क पैदा नहीं होता विकारों से मुक्ति नहीं मिलती है तो जरूर है अपनें बुद्ध ओर सद्गुरु कबीर नानक साहब मोहम्मद साहब की बात को समझने की कि आखिर हमें करना क्या है? जिससे विकारों से छुटकारा मिल जाए ।
सदगुरु कबीर कहते हैं ,
तुझे है शोक मिलने का तो हरदम लो लगाता जा ।पकड़ कर इश्क की झाड़ू सपा कर हिजरी ए दिल को
दुई की धूल को लेकर, मुहल्ले पर उड़ाता जा ।
सत्य चेतना के प्रवाह को देखने के लिए हमारा मनुष्य होना ही पर्याप्त है ,हम इंसान हैं और मानवता ही हमारा धम्म है , यह धम्म का पथ सबके लिए है , हर इंसान विकारों को भंजन करके , अपनी काया के भीतर सत्य चेतना के प्रवाह को अनुभव से हर इंसान देख सकता है ।
सत्य काया के भीतर है , ब्रत उपवास पूजा पाठ कर्मकांड यज्ञ हवन करके मनुष्य अपने विकारों से मुक्त नहीं हो सकता है ।
काम क्रोध लोह ईर्ष्या द्वेश अहंकार से मुक्त नहीं हो सकता है इसलिए यह सब बेकार हैं ।
मानव धम्म की स्थापना के लिए तो अपनी काया के भीतर के विकारों को नष्ट करना होगा और उसके लिए बुद्ध ने सत्य चेतना को देखने का मार्ग खोजा है ।
उस सत्य सनातन धम्म पथ पर चलें ।
"एस धम्मो सनंतनो"
बुद्ध का धम्म पथ ही सनातन है जो सबके लिए है ।
इस सत्य धम्म पथ पर चलने के लिए अपना शरीर ही पर्याप्त है जहां सांसों को देखकर शरीर रूपी तम्बुरे में जो आवाज आ रही है उसे सुनना है । वहीं अनाहत नाद है जिसकी कोई हद नहीं है वो सनातन है मुझ से लेकर अनन्त तक वो अनहद नाद गूंज रहा है ,वो सदा है और सदा रहेगा , जब वो सनातन चेतना शरीर में है तब तक ही सांस आती है और सांस जाती है जिस दिन वो सनातन चेतना बहना बंद कर देती है उसी दिन यह शरीर खत्म हो जाता है लेकिन सनातन सत्य कभी खत्म नहीं होता है, न वो कभी जन्म लेता है न मरता है ,वो सदा है और सदा रहेगा ।
इस मन मंदिर में अनहद नाद की धुन को सुनना है ।
भूखा मरने की जरूरत ही नहीं है पाखंडी बनने की जरूरत ही नहीं है । ओर सत्य की खोज करनें की हिम्मत नहीं है तो भी केवल अच्छे काम करते रहो ईश्वर अल्लाह के नाम पर किसी भी प्रकार का विवाद खड़ा मत करो ।
हम केवल इंसान हैं और इंसानियत ही हमारा धम्म है । संघं शरणं गच्छामि मैं संघ की शरण में जाती हूं। हमें संगठित होकर भारतीय संविधान से मिले अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए मानव मानव के बीच दीवारें खड़ी करनें वालों को अपनी बुद्धी ठीक कर लेनी चाहिए ।
(लेखिका: राजेश शाक्य, लेक्चरर, जिला कोटा राजस्थान)
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